Monday, 22 October 2012

अब तो बांहों में उठा ले कि थकन लगती है..


.यह रचना पहले मेरी स्वतंत्र ग़ज़ल थी फिर इसे फिल्मकार अरिंदम समाद्दार की फिल्म 'मंज़िल अपनी अपनी' के लिए युगलगीत के तौर पर विकसित किया। फिलहाल उन्होंने इसके निर्माण की योजना को टाल दिया है।
पुरुषः
दूर से ही तू मुझे शोलाबदन लगती है।
मार डालेगी मुझे तेरी छुअन लगती है।
स्त्रीः
तू किसी और किसी और के क़रीब न जा
ऐसी हरकत से मुझे तीखी जलन लगती है।
पुरुषः
इस जह़ां की नहीं लगती मुझे सूरत तेरी
तू कोई हूर या फिर उसकी बहन लगती है।
स्त्रीः
कितने जन्मों से तुझे खोजती फिरी हूं मैं
अब तो बाहों में उठा ले कि थकन लगती है।
पुरुषः
तू मेरा इश्क़ है या जान या जहां मेरी
तू ही ख़ुद मुझको बता मेरी कौन लगती है।
स्त्रीः
बदली-बदली सी फ़िजाओं में है खुशबू तारी
छू के आयी है तुझे आज पवन लगती है।
पुरुषः
मेरे सीने में उतर आते हैं खंज़र कितने
जो तेरे पांव में हल्की सी चुभन लगती है।
स्त्रीः
जो न जलती है कभी और न बुझ पाती है
ऐसी कुछ खास मुहब्बत की अगन लगती है।

Tuesday, 2 October 2012

बुजुर्गों की हंसी


मुझे उस घर के बच्चों के ठहाके तक नहीं भाते
के जिस घर से बुजुर्गों की हंसी का वास्ता ना हो।

ये कुनबा भी मेरा है


घर के आगे बिल्ली, कुत्तों औ चिड़ियों का डेरा ह।
जबसे घर में मां आयी है, ये कुनबा भी मेरा है।

Saturday, 23 June 2012

कई पंछी निकल के उड़ते हैं

कई पंछी निकल के उड़ते हैं
मैं जब भी मन का पिंजरा खोलता हूं



शुबहा करते है अपने कद पे सभी
कभी अपना वज़न जो तोलता हूं

Tuesday, 12 June 2012

घाटे के भी सौदों में


घाटे के भी सौदों में है मैने कमाई की
दिल तोड़ दिया तुमने कुछ शेर निकल आये।

Thursday, 12 April 2012

तेरे अश्कों से भींगे ख़त

घने अंधेरे में भी रोशन-रोशन मेरी शब

तेरे अश्कों से भींगे ख़त जलते रहते हैं।

गुल्लख नहीं तोड़ी जाती

हज़ारों सपनों का सबसे बड़ा खजाना है

मुझसे औलाद की गुल्लख नहीं तोड़ी जाती।